आतंकवाद इंसानियत को अमेरिका बहोत बड़ा तोहफा है। इससे वो किसी भी देश मे सीधे घुसने के रास्ते निकलता है या फिर दो गुटो को लडवा कर उन्हे कमज़ोर कर देता है, ताकि वो उसके सामने खड़े ना हो सके। वो ना तो इंसान के हुक़ुक़ (Human Rights) का कोई ख्याल करता है, ना अवामी हुकूमत (Democracy) से उसका कोई लेना देना है। अमेरिका का मक़सद है; लोगो मे डर फैलाना और उनमे से लड़ने की और अपना बचाव करने की ताक़त को खत्म करना। 9/11 और उसके बाद के वाक़ेआत अमेरिका के मक़सद की तरफ एक छोटा सा इशारा है।
आगे बढ़ने से पेहले ये बात ध्यान मे रख ले की ISIS / ISIL अमेरिका की ईजाद है जिसे खुद अमेरिका ने ट्रैनिंग दी है ताकि वो सिरिया मे बशर अल असद की हुकूमत का तख्ता पलट कर दे। इस आर्टिकल का मक़सद है के हम पिछले कुछ सालो की घटनाओ का जाएज़ा लेते हुए आज जो कुछ इराक़ और सिरिया मे हो रहा है उस तक पहुचे और ये जानने की कोशिश करे के हक़ीक़त क्या है।
ये आर्टिकल दो हिस्सो मे है:
१. मुक़द्दमा; इराक़ मे आतंकवाद:
ये बात क़बीले ग़ौर है की अमेरिका की इक़तेसादी हालत (Economic condition) 1970 मे बहोत खराब हो गई थी, खुसूसन विएतनाम वॉर के बाद। और उसके बाद अमेरिका चाह रहा था के तीसरी दुनिया के देश (Third world countries) को हमेशा अपनी पकड़ मे रखे खास कर के अरब और आफ्रिका के देशो को। लेकिन अमेरिका के इस प्लान को भी क़रारा धक्का लगा जब ईरान मे इस्लामी इनक़ेलाब आया और ईरानियों ने इमाम खुमैनी की क़ायादत मे अमेरिका के टट्टू रेज़ा शाह को देश से भगा दिया और इस्लामी मुल्क का नीफ़ज़ कर लिया।
अमेरिका का मंसूबा पक्का था इसलिये उसने सोविएट रशिया के दिये हुए प्रस्ताव को ठुकरा दिया जिसमे रशिया ने मिड्ल ईस्ट और अरब ममालिक से मुकम्मल तौर से बाहर जा कर इस इलाक़े को किसी भी बड़ी ताक़त की पकड़ से आज़ाद रखने के लिये कहा था जिसके तहत किसी भी अरब देश मे ना कोई अमेरिकी या रूसी बेड़ा रहे ना फ़ौज। इसके बर खिलाफ अमेरिका ने ईरान इराक़ जंग मे सद्दाम का भरपुर साथ दे कर अपनी पकड़ बनाने की पूरी कोशिश की।
सौदी अरेबिया ने भी आगे बढ़ कर ईरानी इनक़ेलाब के खिलाफ इक़्दाम किये और अमेरिकन प्रेसिडेंट रेगन को ये भरोसा दिलाया के हम सौदी अरब को कभी ईरान नहीं बनने देगे। और इसके बाद 1985 मे सौदी ने अपनी ज़मीन पर अमेरिकी बेड़ा बनाने की इजाज़त दे दी।
यहा ये बात खास तौर से ध्यान मे रखनी चाहिये की अमेरिका की अरब देशो के साथ दोस्ती का सबसे बड़ा कारण कम्यूनिस्ट फिक्र को फैलने से रोकना और अवाम को अपने पर हुकूमत करने वालो के खिलाफ बगावत से दूर रखना था।
ईरान इराक़ जंग 1988 मे खत्म हो गई जिसके बाद सद्दाम ने अमेरिका से मिले हुए हथियारो से कुवैत पर हमला कर दिया और वहा के बहोत से इलाक़ो पर क़ब्ज़ा जमा लिया। इसके बाद अमेरिका ने सौदी अरब की मदद से सद्दाम के ठिकानो पर हमला कर के इराक़ी फ़ौजो को कुवैत से खदेड़ निकला। इस जंग के कुल 60 बिलियन अमेरिकी डॉलर के खर्चे मे से सौदी अरब ने 36 बिलियन खुद अपनी तरफ से दिये और अमेरिकी फ़ौज को सौदी अरब मे हमेशा के लिये ठिकाना बनाने की इजाज़त दे दी। इसके साथ ही एक बहोत अहम बात ये हुई की, अमेरिका ने इसराएल को इराक़ के 100 से ज़्यादा खास जगहो की फेहरिस्त दी जिसपर इसराइल हमला कर सके।
इस जंग के बाद इराक़ पर कमर तोड़ पाबंदिया लाद दी गई जिसके नतीजे मे 10 लाख लोगो की जाने गई, जिसमे आधे से ज़्यादा बच्चे थे। वहा पर नो फ्लाइ ज़ोन बना दिया और आए दिन हमले किये गए जिसकी वजह से पूरा इराक़ एक मलबे के ढेर मे तब्दील हो गया था और वहा के लोगो मे लड़ने के लिये जज़्बा खतम हो गया।
एक बहोत रोचक बात ये भी है की इसी साल, इसराइल के जरूसलम पोस्ट ने ये बात सामने रखी के दुनिया मे कम्यूनिसम की जगह कट्टरपंथी इस्लाम जगह ले रहा है। इस बात को आगे लाने का अहम मक़सद ये था के सोविएत रशिया के टूटने के बाद अमेरिका के सामने कोई बड़ा "खतरा" नहीं रह गया था। 90 के दशक मे ही अमेरिकी और इसराएली एजेंट पूरी दुनिया के मीडीया पर छाने लगे थे।
सितंबर 11 2001, आगे आने वाले मुस्तक़बिल का अहम दिन:
सितंबर 11 के दो दिनो बाद जब अमेरिका खुद के बनाए एक सनेहे से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था, उसी वक़्त Jewish Institute for National Security Affairs (JINSA) ने एक स्टेट्मेंट जारी कर के अमेरिकी फ़ौज को ये बता दिया के सद्दाम के साथ क्या बर्ताव किया जाए। JINSA ने ये कहा के इराक़ पर फ़ौजी कारवाही की जाए। इसके साथ ही ये भी कहा गया के अमेरिका को आगे बढ़ ना सिर्फ आफ्गानिस्तान और इराक़ मे, बल्कि दूसरे देशो मे भी कमान अपने हाथो मे लेनी चाहिये जैसे की ईरान, पाकिस्तान, सिरिया, सूदन, फिलीस्तीन, लिबिया, अल्जीरिया – और आखिर मे सौदी अरेबिया और मिस्र।
२. इराक़ मे आतंकवाद; अमेरिकी हमला:
सौदी हुकूमत को उस वक़्त भी ईनामात से नवाज़ा गया जब उसने ईरानी मुखालिफ शक्स आयाद अल्लवी को प्राइम मिनिस्टर के लिये मदद की। इस शख्स का सबसे पेहला हुक्म था के इराक़ और सौदी अरब के बीच डिप्लोमॅटिक रिश्ते क़ायम हो जाए। इस शख्स को मूछो बगैर का सद्दाम और अमेरिकी टट्टू भी कहा जाता था।
2005 के चुनाव मे ये हार गया। 2009 मे इसने अल-इरक़िया नाम की पोलिटिकल पार्टी बनाई।
अमेरिका के इराक़ पर काबिज़ होने के बाद सबसे पेहला क़दम ये उठाया गया के ईरान से भगाए हुए आतंकवादी गिरोह "मुजाहिदीन-ए-ख़ल्क़" को एक अहम जगह दी गई। अमेरिका इस आतंकवादी गिरोह का खास तौर से शुक्रगुज़ार है के इन्होने 8 साला ईरान इराक़ जंग मे इराक़ का भरपूर साथ दिया और साथ ही सन 2000 के उस सरकारी इमारत पर हमले मे भी जिसमे खुद अयातुल्लाह खामेनेई और ईरानी प्रेसिडेंट मौजूद थे। इस गिरोह के साथ मिल कर अमेरिका और इसराइल ने मिल कर ईरानी न्यूक्लियर प्रोग्राम के बहोत से बारीक बाते पता करी और मंसूबा बंदी भी करी।
सन २००५ मे, उस वक़्त के इराक़ी सद्र,
जलाल तालिबानी ने ये एलान किया के शीया, सुन्नी और कुर्द एक मुहाईदे पर राज़ी हो
गए है जिसके तहत कुर्दो को अपना एक अलग इलाक़ा मिलेगा जहा उनकी खुद हुकूमत होगी और
इराक़ का सद्र हमेशा एक सुन्नी ही रहेगा और प्राइम मिनिस्टर, एक शीया। इस एलान के
बाद फिर से इराक़ी जमा होने लगे और अमेरिका के इराक़ मे लम्बे अरसे तक टिकने के
मंसूबे पर खतरे के बदल छाने लगे।
आगे बढ़ने से पेहले ये बात ध्यान मे रख ले की ISIS / ISIL अमेरिका की ईजाद है जिसे खुद अमेरिका ने ट्रैनिंग दी है ताकि वो सिरिया मे बशर अल असद की हुकूमत का तख्ता पलट कर दे। इस आर्टिकल का मक़सद है के हम पिछले कुछ सालो की घटनाओ का जाएज़ा लेते हुए आज जो कुछ इराक़ और सिरिया मे हो रहा है उस तक पहुचे और ये जानने की कोशिश करे के हक़ीक़त क्या है।
ये आर्टिकल दो हिस्सो मे है:
१. मुक़द्दमा; इराक़ मे आतंकवाद:
ये बात क़बीले ग़ौर है की अमेरिका की इक़तेसादी हालत (Economic condition) 1970 मे बहोत खराब हो गई थी, खुसूसन विएतनाम वॉर के बाद। और उसके बाद अमेरिका चाह रहा था के तीसरी दुनिया के देश (Third world countries) को हमेशा अपनी पकड़ मे रखे खास कर के अरब और आफ्रिका के देशो को। लेकिन अमेरिका के इस प्लान को भी क़रारा धक्का लगा जब ईरान मे इस्लामी इनक़ेलाब आया और ईरानियों ने इमाम खुमैनी की क़ायादत मे अमेरिका के टट्टू रेज़ा शाह को देश से भगा दिया और इस्लामी मुल्क का नीफ़ज़ कर लिया।
अमेरिका का मंसूबा पक्का था इसलिये उसने सोविएट रशिया के दिये हुए प्रस्ताव को ठुकरा दिया जिसमे रशिया ने मिड्ल ईस्ट और अरब ममालिक से मुकम्मल तौर से बाहर जा कर इस इलाक़े को किसी भी बड़ी ताक़त की पकड़ से आज़ाद रखने के लिये कहा था जिसके तहत किसी भी अरब देश मे ना कोई अमेरिकी या रूसी बेड़ा रहे ना फ़ौज। इसके बर खिलाफ अमेरिका ने ईरान इराक़ जंग मे सद्दाम का भरपुर साथ दे कर अपनी पकड़ बनाने की पूरी कोशिश की।
सौदी अरेबिया ने भी आगे बढ़ कर ईरानी इनक़ेलाब के खिलाफ इक़्दाम किये और अमेरिकन प्रेसिडेंट रेगन को ये भरोसा दिलाया के हम सौदी अरब को कभी ईरान नहीं बनने देगे। और इसके बाद 1985 मे सौदी ने अपनी ज़मीन पर अमेरिकी बेड़ा बनाने की इजाज़त दे दी।
यहा ये बात खास तौर से ध्यान मे रखनी चाहिये की अमेरिका की अरब देशो के साथ दोस्ती का सबसे बड़ा कारण कम्यूनिस्ट फिक्र को फैलने से रोकना और अवाम को अपने पर हुकूमत करने वालो के खिलाफ बगावत से दूर रखना था।
ईरान इराक़ जंग 1988 मे खत्म हो गई जिसके बाद सद्दाम ने अमेरिका से मिले हुए हथियारो से कुवैत पर हमला कर दिया और वहा के बहोत से इलाक़ो पर क़ब्ज़ा जमा लिया। इसके बाद अमेरिका ने सौदी अरब की मदद से सद्दाम के ठिकानो पर हमला कर के इराक़ी फ़ौजो को कुवैत से खदेड़ निकला। इस जंग के कुल 60 बिलियन अमेरिकी डॉलर के खर्चे मे से सौदी अरब ने 36 बिलियन खुद अपनी तरफ से दिये और अमेरिकी फ़ौज को सौदी अरब मे हमेशा के लिये ठिकाना बनाने की इजाज़त दे दी। इसके साथ ही एक बहोत अहम बात ये हुई की, अमेरिका ने इसराएल को इराक़ के 100 से ज़्यादा खास जगहो की फेहरिस्त दी जिसपर इसराइल हमला कर सके।
इस जंग के बाद इराक़ पर कमर तोड़ पाबंदिया लाद दी गई जिसके नतीजे मे 10 लाख लोगो की जाने गई, जिसमे आधे से ज़्यादा बच्चे थे। वहा पर नो फ्लाइ ज़ोन बना दिया और आए दिन हमले किये गए जिसकी वजह से पूरा इराक़ एक मलबे के ढेर मे तब्दील हो गया था और वहा के लोगो मे लड़ने के लिये जज़्बा खतम हो गया।
एक बहोत रोचक बात ये भी है की इसी साल, इसराइल के जरूसलम पोस्ट ने ये बात सामने रखी के दुनिया मे कम्यूनिसम की जगह कट्टरपंथी इस्लाम जगह ले रहा है। इस बात को आगे लाने का अहम मक़सद ये था के सोविएत रशिया के टूटने के बाद अमेरिका के सामने कोई बड़ा "खतरा" नहीं रह गया था। 90 के दशक मे ही अमेरिकी और इसराएली एजेंट पूरी दुनिया के मीडीया पर छाने लगे थे।
सितंबर 11 2001, आगे आने वाले मुस्तक़बिल का अहम दिन:
सितंबर 11 के दो दिनो बाद जब अमेरिका खुद के बनाए एक सनेहे से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था, उसी वक़्त Jewish Institute for National Security Affairs (JINSA) ने एक स्टेट्मेंट जारी कर के अमेरिकी फ़ौज को ये बता दिया के सद्दाम के साथ क्या बर्ताव किया जाए। JINSA ने ये कहा के इराक़ पर फ़ौजी कारवाही की जाए। इसके साथ ही ये भी कहा गया के अमेरिका को आगे बढ़ ना सिर्फ आफ्गानिस्तान और इराक़ मे, बल्कि दूसरे देशो मे भी कमान अपने हाथो मे लेनी चाहिये जैसे की ईरान, पाकिस्तान, सिरिया, सूदन, फिलीस्तीन, लिबिया, अल्जीरिया – और आखिर मे सौदी अरेबिया और मिस्र।
हालांकि सौदी अरेबिया लिस्ट मे लिखा हुआ नहीं था लेकिन वो टार्गेट पर ज़रूर था। और सौदी ने अपना काम बखूबी निभाते हुए दुनिया मे आतंकवाद को बढ़ावा देने मे बहोत मदद करी।
ये सभी को मालूम होना चाहिये की सौदी अरब ने किस तरहा अमेरिका को इराक़ पर हमला करने मे मदद करी और 2003 मे सद्दाम की हुकूमत का खात्मा हुआ। इसके बदले मे सौदी हुकूमत ने अमेरिका को सस्ता तेल देने का वाडा किया। और ये भी कहा के सौदी बुश की खास मदद करेगा और ये ध्यान रखेगा के अमेरिका के प्रेसेडेंटियल चुनाव के दिन तेल का भाव कम से कम सतह पर हो। इस सब चीज़ो के लिये पर्याप्त सबूत मौजूद है।
अमेरिका के इराक़ पर काबिज़ होने के बाद सबसे पेहला क़दम ये उठाया गया के ईरान से भगाए हुए आतंकवादी गिरोह "मुजाहिदीन-ए-ख़ल्क़" को एक अहम जगह दी गई। अमेरिका इस आतंकवादी गिरोह का खास तौर से शुक्रगुज़ार है के इन्होने 8 साला ईरान इराक़ जंग मे इराक़ का भरपूर साथ दिया और साथ ही सन 2000 के उस सरकारी इमारत पर हमले मे भी जिसमे खुद अयातुल्लाह खामेनेई और ईरानी प्रेसिडेंट मौजूद थे। इस गिरोह के साथ मिल कर अमेरिका और इसराइल ने मिल कर ईरानी न्यूक्लियर प्रोग्राम के बहोत से बारीक बाते पता करी और मंसूबा बंदी भी करी।
अमेरिका ने इराक़ मे अपने बड़े बड़े बेस भी बनाए। उन्होने हमला करते वक़्त वादा किया था के ऐसा कुछ नहीं करेगे लेकिन उसको नज़रअंदाज़ कर के अंग्रेज़ी नामो से बेस बनाए। ये अपने आप मे एक शहर बनाए गए जिसमे सब कुछ था, स्वीमिंग पूल, गोल्फ, कॉफी शॉप, थियेटर सबकुछ। एक अमेरिकी रिटाइर्ड जौर्नेल, करें क्वीयत्कोव्स्की, के मुताबिक़ अमेरिका का इराक़ पर क़ब्ज़ा एक सोचा समझा कदम है जिसे दूरअंदेशी के साथ पूरा किया गया है। इसका अहम मक़सद इस्राइल की मुहाफ़िज़ात और सिरिया - ईरान पर नज़र रखना है। और ये बात आज सच साबित होती है - जब अमेरिका सिरिया मे बागी गिरोह को मदद कर रहा है और ईरान मे मुजाहिदीन-ए-कॉल्क आतंकवादी गिरोह को बढ़ावा दे रहा है।
लेकिन
इराक़ पर क़ब्ज़ा करना इतना आसान नहीं निकला। इराक़ मे बहोत बम गिराए गए, बहोत
जाने गई, बच्चे मारे गए, औरतों की इज़्ज़ते लूटी गई, अबू गुरेब ज़ैल मे शर्मसार
करने वाली हरकते मंज़र ए आम पर लाई गई। इन सब का नतीजा ये हुआ के इराक़ी अपने को
सद्दाम से आज़ाद करने वेल अमेरिका के खिलाफ खड़े होने पर मजबूर कर दिये गए।
इन सब मे सबसे अहम मुक़तदा अल सद्र है,
जिन्होने मज़लूम इराक़ीयो को आवाज़ दी और अमेरिका के ज़ुल्म की अपने अखबार
"अल-ह्व्ज़ा" मे खुल कर मुखालिफत की। जिसका नतीजा ये हुआ के अमेरिका ने
उनके अखबार पर पाबंदिया आएद कर के उसे बंद कर दिया।
शोहोदा के बढ़ते आकडे, ज़ुल्म की
इन्तेहा और तश्शादूद ने इराक़ीयो को अमेरिका के खिलाफ एक साथ ला खड़ा किया। २००४
मे सुन्नी आलिम इमाम अल अधम ने आएलन किया, "आज जो कुछ इराक़ मे हो रहा है
इराक़ीयो के साथ हो रहा है, इसमे शीया - सुन्नी, अरब - कुर्द मे कोई फ़र्क़ नहीं।
हम सब को एक साथ गुलाम बनाया गया है।"
इस वक़्त ये साफ ज़ाहिर हो रहा था के
इराक़ी मिल कर अमेरिका के खिलाफ एक साथ खड़े हो रहे है। इस ताक़त को खत्म करने के
लिये इस इत्तेहाद को तोड़ना ज़रूरी था और अमेरिका को इसमे महारत हासिल थी। कुछ ऐसा
करना जिससे शीया सुन्नी अलग हो जाए, कुर्द अरब अलग हो जाए।
इन सब के बीच जिस शक्सियत ने नफरत का बीज बोया
वो था जॉर्डन का बादशाह, अब्दुल्लाह, जिसने सन २००४ मे इराक़ीयो को तोड़ने के लीये
एक हरबा निकला और इसे नाम दिया "शीया क्रेसेन्ट". इस एक हर्फ़ / शब्द ने
बहोत बड़ी बुनियाद रखी शीया सुन्नी अलग करने की और कुर्द अरब को जुदा करने की। इस
नज़रिये को फैलाने के लीये मीडीया ने अमेरिका और उसके सहयोगियो का खुल कर साथ दिया
और इसे आम कर दिया, जिससे फ़िरक़ावारियत की आग भड़क उठ्ठी और पूरे इराक़ को अपने
चपेट मे ले लिया।
इसी बीच, २००६ मे अचानक से ये एलान किया गया
के कुर्द की फ़ौज को इस्राइली फ़ौज ट्रैनिंग दे रही है। और उसी वक़्त सौदी अरब ने
एलान किया के वो इराक़ से सटी अपनी सरहद को मज़बूती से बंद कर रहा है ताकि
आतंकवादियो को रोका जा सके। लेकिन इसी दौरान एक बहोत दुखद और अफसोसनाक हादसा पेश
आता है, वो था इराक़ के समरराः मे इमाम अस्करी (अ) के हरम को बम धमाके मे शहीद कर
दिया जाता है जिसका ज़िम्मा सुन्नियो पर डाल कर अमेरिका फ़िरक़ापरस्त ताक़तो को
आपस मे लड़ने का मौक़ा देता है।
मई २००६ मे अमेरिकी नाएब सद्र, जो बीडन एक
प्रस्ताव रखते है जिसके तहत इराक़ को टीन हिस्सो मे तक़सीम करने का मुद्दा उठाते
है; शीया, सुन्नी और कुर्दी इलाक़ो की बिना पर। इसी के साथ इराक़ मे आतंक फैल जाता
है और हज़ारो अफराद अपनी जान गवा बैठते है। इसी फितने को बढ़ावा देने के लीये
सद्दाम को ईद अल अज़हा के रोज़ बग़दाद के ग्रीन ज़ोन मे फ़ासी दे दी जाती है।
फ़ासी का वक़्त इतना नाज़ुक था के ईद का दिन मुसलमानो के लीये अहम दिन रेहता है।
लेकिन इस रोज़ एलान किया जाता है के शिओ के लीये एक बेहतरीन तोहफा दिया गया। जिसके
नतीजे मे सद्दाम को फ़ासी देने के मौक़े को भी अमेरिका फ़िरक़ावारियत मे बदलने पर
कमियाब हो जाता है।
सन २००७ मे सद्र ओबामा ३०,००० मज़ीद अमेरिकी
फ़ौजी इराक़ मे भेजने का एलान करते है और केहते है ये ये फ़ौजी एक जूट इराक़ बनाने
मे मदद करेगे जो अपने आप की मुहाफ़िज़ात कर सके और आतंकवाद से निपटने के लीये
अमेरिका का साथ दे सके। इसी दौरान समररा मे इमाम अस्करी (अ) के हरम पर दोबारा हमला
होता है। इस वक़्त इराक़ी ईसाइयो को भी फ़िरक़ावारियत की जंग मे खदेड़ने की कोशिश
की जाती है जिसमे ईसाई और मुसलमान को लड़ाया जाता है।
सन २००८ मे प्राइम मिनिस्टर नूरी मालिकी
अमेरिका के हमेशा रेहने के इरादे पर नाराज़गी दिखते है और अमेरिका- इराक़ के बीच
एक मुहाएदा होता है (SOFA) जिसके तहत सभी अमेरिकी फ़ौजे इराक़ को डिसेंबर २०११ तक
खाली कर देगी।
ये समयसीमा हमे उस वक़्त के क़रीब लती है जहा
अमेरिका ISIL / ISIS आतंकवादियो को फ़ौजी ट्रैनिंग देता है ताकि वो सिरिया मे बशर
अल असद की हुकूमत को नुकसान पहुचा सके। ISIL / ISIS संघटन सिरिया और इराक़ मे
आतंकी वारदातो मे मुलाव्वीस था। इसका मक़सद साफ था, असद को सिरिया से बाहर करना और
ईरान- हेज़बुल्लाह को इस झगड़े मे घसीटना। साथ ही अमेरिका के अपने पुराने फाएदे की
तरफ पलटना जिसके तहत अमेरिका लम्बे समय तक इराक़ मे अपनी जड़े जमाए रखे।
बातो को समेटते हुए, ये बात साफ ज़ाहिर
है के अमेरिका अपना क़ब्ज़ा मिड्ल ईस्ट मे जमाए रखना चाहता है ताकि वो अपना
वर्चस्व पूरी दुनिया पर बाक़ी रख सके। जब कम्यूनिसम और छोटे देशो की जंग अमेरिका
के इस मंसूबे को पूरा करने मे कमियाब नज़र होती नहीं आई तो अमेरिका ने 9/11 की
घटना को गड़ कर और फ़िरक़ावारियत की जंग को फैला कर अपने मंसूबे को कमियाब करने की
कोशिश जारी रखी। और इसी कोशिश का आज का नाम है ISIS / ISIL.
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