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Thursday, 28 August 2014

गाज़ा इसराइल जंग बंदी: फिलीस्तीन की अस्ल मे जीत और इसराइल की हक़ीक़ी शिकस्त

तक़रीबन 50 दिनो की शदीद बमबारी, जंग जिसमे 2200 फिलीस्तीनियों की शहादत और 10,000 से ज़्यादा ज़ख्मी लोग इसराइली अवाम को ये सवाल पूछने पर मजबूर कर रहे है - इतने खून खराबे के बाद इसराइल ने क्या पाया?

इन सब के बाद जब जंग बंदी का एलान हुआ तो गाज़ा मे लाखो लोग सड़कों पर उतर आए और जीत की खुशियाँ मानने लगे। इसके बिलकुल खिलाफ इसराइल मे लोगो ने घरों मे बैठ कर अपने प्राइम मिनिस्टर बेन्यामिन नेतन्याहू पर लानत मलामत करते रहे, जिसने इसराइली अवाम से ये वादा किया था के वो फिलीस्तीनी मुक़ावमत को निस्तोनाबूद कर देगा, लेकिन अपने मक़सद मे पहुचने मे ज़बरदस्त शिकस्त का सामना किया। इसी जंग के दौरान नेतन्याहू की इसराइल मे रेटिंग 84% से घट कर 40% से भी नीचे चली गई। आज पूरा इसराइल, जिसमे नेता और अवाम शामिल है, नेतन्याहू को कोस रहे है और ये एतेराफ कर रहे है के इन जंग मे इसराइल को हद से ज़्यादा नुकसान उठना पढ़ा है।

ये खुली हुई जंग बंदी, जो मिस्र (Egypt) मे हुई है, दर अस्ल फिलीस्तीनियों के मांगो को पूरा कर रही है, जिसमे इसराइल ने गाज़ा के घेराओ को कुछ हद तक खोलने पर रज़ामंदी की है जिसमे गाज़ा के समंदरी किनारो को आज़ाद करने और राफा सरहद को खोलने पर भी हामी भरी है।

इसी बीच इसराइली और फिलीस्तीनी डेलिगेशन्स ने मिस्र मे और मिलने की बात की है। दुनिया से अच्छी तरह से जानती है की इसराइल इस बातचीत को अम्न और शांती से आगे बढ़ने नहीं देगा और जल्द ही फिर से गाज़ा पर हमले के आसार पैदा हो सकते है। पिछले कई सालो मे इसराइल का यही रवैय्या रहा है जिसमे इसराइल ने कई UN को मुआहिदो को तोड़ कर खुद अपनी तरफ से जंग का आगाज़ कर कई मासूमो की जाने ली है। इसकी ताज़ा मिसाल ओस्लो मुआहिदा, 2005, 08-09, 2012 और 2014 की जंगे रही है।

2014 की इस जंग के बाद आज इसराइल शर्म के साथ एक तरफ नंगा खड़ा है जहा उसके खुद साथीदार उसका खुल कर साथ नहीं दे सकते। इसराइल ने घिनौने जुर्म कर के इंसानियत को शर्मसार कर दिया है। इसी जंग के दौरान UN और अमेरिका कई बार इसराइल को फटकार  लगने पर मजबूर हुए और मीडीया के सामने डाट लगाई है। लेकिन इन सब के साथ बेशर्म अमेरिका ने इसराइल का भरपूर साथ देते हुए इसराइल को अपने नए हथियार और हवाई जहाज़ दे कर उसे और मज़बूत करने की कोशिश भी की है।

दूसरी तरफ फिलीस्तीन की मज़लूम अवाम ने अपने जियालो का भरपूर साथ दे कर एक बार फिर बता दिया की वो किसी भी तरहा के इसराइली और अमेरिकी दबाओ मे नहीं आएगी और अपनी आज़ादी के लिये किसी भी हद तक क़ुर्बानी देने से पीछे नहीं हटेगे। हामास, फ़ातहा और दीगर फिलीस्तीनी गिरोहो ने जिस तरह मिल कर इसराइली ज़ुल्म का सामना किया है वो बगैर अवामी मदद के मुमकिन नहीं था।

इसराइल का इरादा था की वो ज़मीनी हमला कर के गाज़ा को मुकम्मल तौर पर अपने क़ब्ज़े मे कर ले लेकिन फिलीस्तीनी मुक़ावमत के सामने इसराइल की एक ना चली और उसे अपनी शिकस्त क़बूल कर के पीछे हटना पड़ा, जैसे उसे 2000 और 2006 मे लेबनानी मोक़ावामत से हार कर पीछे हटना पड़ा था।

इसके साथ ही ग़ाज़ा की मोक़ावामत ने सारी दुनिया को इस बात पर मजबूर कर दिया के वो इसराइल से ग़ाज़ा की घेराबंदी को खत्म करने की मांग को जंगबंदी की अहम शर्तों मे से एक शर्त रखे। यहा इस बात की तरफ ध्यान देना ज़रूरी है के सारे अरब ममालिक, इसराइल और अमेरिका की इस चाल को करारी शिकस्त मिली है जिसमे वो लोग हमास को एक तरफा जंगबंदी पर मजबूर कर रहे थे। लेकिन फिलीस्तीनी अवाम की बेतहाशा मदद और शहादत तलबी के चलते ज़ालिम हुक्मरनो की एक ना चली और इसराइल को फिलीस्तीनी अवाम की शर्तों पर राज़ी होना ही पढ़ा।

ये बात ज़ाहिर है के ग़ाज़ा की अवाम ने इसराइल के ज़ुल्म और बर्बरियत के सामने घुटने टेकने से माना कर कर दिया और इस बात से सॉफ इंकार किया के वो लोग दुनिया के सबसे बड़ी ज़ैल, ग़ाज़ा, मे और ज़्यादा रहे। इसलिये उन्होने एक अहम मांग जिसमे ग़ाज़ा के घेराओ को खोलने की बात रखी और उसे मनवा लिया। इसराइली घेरा बंदी मे मामूली छूट से भी ग़ाज़ा के मज़्लूमो की हालत मे बहोत सुधार हो सकता है।

इस जंग के बाद अब सबसे बड़ा काम है के ग़ाज़ा की फिर से तामीर की जाए। इसराइल ने अपनी पूरी ताक़त लगा कर ग़ाज़ा के इलाक़े को नुकसान पहुचने की कोशिश की है। पूरा इलाक़ा, स्कूल, अस्पताल, सड़कें, मैदान, यहा तक खेत और समंदरी किनारे भी इसराइली गोलाबारी से बच नहीं पाए है।

इस जंग मे इसराइल को सिर्फ एक कमियाबी मिली है के वो अपने आइरन डोम (Iron Dome) हथियार को दुनिया के सामने बेचने के लिये अच्छे तरीक़े से रख सकता है। इसराइल कई सालो से मज़लूम फिलीस्तीनियों को अपने हथियारों को आज़माने की एक लॅब बनता आया hai।

इसराइल के इस ज़ुल्म ने फिलीस्तीनियों मे मौजूद मुख़्तलिफ़ गिरोहो को एक दूसरे के क़रीब ले आया है। अब फ़तह और हामास एक साथ है और इसराइल से मुक़ाबला करने के लिये साथ मे खड़े है। अब इसराइल के इस बहाने को कोई जगह नहीं बची जिसमे को कहता फिरता था के सामने कोई बात करने के लिये मौजूद ही नहीं है। ये किसी भी गासिब के लिये सबसे बढ़ा खतरा है के उसके सामने वाले एक हो जाए।

जहा एक तरफ पूरा फिलीस्तीन और सारी दुनिया इसराइल के हाथो शहीद हुए मज़्लूमो के लिये रो रहे है, वही आलमी इंतिफादा और आलमी मोक़ावामत इसराइल के आगे और मज़बूत हमला करने के लिये तय्यार हो रहा है। और सारे दुनिया के अम्न और अदल् पसंद लोग इसका साथ दे रहे है। अब वो दिन दूर नहीं के हम अपनी ज़िंदगी मे ही देखेगे के इसराइल का नामो निशान इस दुनिया से मीट चुका है और फिलीस्तीनी आज़ाद हो कर अपनी ज़िंदगी बसर कर रहे है।

Monday, 11 August 2014

क्या जन्नतुल बक़ी का सानेहा शिया सुन्नी इखतेलाफ का नतीजा है?

आज से तक़रिबन 90 साल पहले इस्लाम के सबसे पकिज़ा शहरो मे से एक शहर, मदीना मुनव्वारा मे जन्नतुल बक़ी नामी कब्रस्तान को बुल्डोज़र की मदद से मिसमार कर दिया गया। क्या ये हरकत करने वाले किसी दूसरे मज़हब के माननेवाले थे? नहीं, बल्की कलमा गो थे, अल्लाह पर और उसके रसूल (स्) पर ईमान रखते थे और खुद को मुसलमान बुलाते थे।



  • फिर इन मुसलमनो ने इस्लाम की अज़ीम निशानी, जन्नतुल बक़ी को कैसे मिसमार कर दिया?
  • क्या इन मुसलमनो मे और दूसरे मुसलमनो मे कोई फर्क है?
  • क्या ये मुसलमान रसूल (स्) और उनकी आल और असहाब से मुहब्बत नहीं रखते?
  • 1300 साल से जो मकबरे और क़ब्रे जन्नतुल बक़ी मे काएम और दाएम थी, उन्होने इन क़ब्रों को क्यू ज़मीनदोस कर दिया?

ये बहुत से सवाल आम इंसान के ज़हन मे आना ज़रूरी है। आए.. हम इन सवालत को तरीख की नज़र से देखने की कोशिश करते है।

जिन लोगो ने जन्नतुल बक़ी को मिसमार किया वो आले सउद से थे और अपने आप को मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब का माननेवाला ताबीर करेते थे।

 
ये इब्ने वहाब कौन है? 
सन 1703 ई. मे जनम लेने वाले मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब ने इस्लाम का एक नया नजारिया पेश किया जिसमे आम मुसलमान अकीदे से हटकर नए नजारियात पेश किए और जिन्होने इन नए अकाएद् को मानने से इंकार किया उन्हे काफिर घोषित कर के उनके कतलए आम का एलन कर दिया।






इसका नजारिया क्या था और इसने ये नजारिया कहा से लिया?
मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब इब्ने तैमिया के मानने वालो मे से था। लेकिन उसने इब्ने तैमिया के नजारिये को कट्टर तरीके से लोगो पर थोपने का काम किया। इब्ने तैमिया इमाम अहमद बिन हम्बल के तरीके को मनता था और सुन्नी फिक्र के हंबली मसलक मे से था। इब्ने तैमिया अपने ज़माने के सुन्नी हज़रात के कुछ अकिदो से अलग राए रखता था जिनमे खास तौर पर अल्लाह से मंगते वख्त वसीला इखतियार करना और नबी ए करीम हज़रत मुहम्मद (स्) की ज़ियारत पर जाना शामिल थे।

लेकिन इब्ने तैमिया ने कभी किसी पर अपने इस अकीदे के ना मानने की बीना पर कुफ्र का फतवा नहीं दिया। इब्ने वहाब ने इब्ने तैमिया के इन्ही अकाएद् के आगे बढाते हुए इन्हे नए तरीके से पेश किया लेकिन हुकुमती मदद ना मिलने की बीना पर इसे लोगो मे फैला नहीं सका। इब्ने वहाब ने इस वक्त हिजाज़ मे नज्द इलाके मे आले स्उद के सरदार उस्मान बिन मुअम्मर के सामने पेशकश रखी के वो इसके अकाएद् को अपना आईन बना कर एक तेहरीक चलाए और हिजाज़ मे वहाबी मुहिम को आम करे।

१८वी सदी मे इब्ने वहाब को आले स्उद का साथ मिला और इन लोगो ने हिजाज़ मे हर जगह कतल ओ घारत मचा कर इस खित्ते को अपने कब्ज़े मे करने की पुरी कोशिश करी। ये हमले 70 साल तक जारी रहे। सबसे बड़ा हमला इन लोगो ने 1802 ई. मे करबला पर किया, जिसमे बहुत लोगो की जाने गई और वहाबियों ने हरम ए इमाम हुसैन (अ) को काफी नुक्सान पहुचाया और वहा की बेशकिमती चिज़ों को चुरा लिया।


सन 1818 मे इस इलाके मे हुकुमत पाज़ीर सुन्नी उस्मानिया खिलाफत ने वहाबियों के खिलाफ कारवाई कर के उन पर ज़बरदस्त हमला किया और उन्हे करबला समेत इराक से खदेड दिया। उस्मानिया खिलाफत ने वहाबियों को इतना नुक्सान पहुचाया के वो लोग घोशानशीन हो गए और अगले 100 सालो तक कुछ ना कर सके। लेकिन इन वहाबियों ने सुन्नी उस्मानिया हुकुमत को तोडने के लिये खामोशी से अंग्रेज़ों का साथ दिया और पहले विश्व युद्ध (World War I) के नतीजे मे उस्मानिया खिलाफत के तुटने के बाद अंग्रेज़ों ने हिजाज़ की हुकुमत इन्ही आले स्उद को दे कर हिजाज़ को स्उदी अरब बना दिया।

याद रहे के ये स्उदी ना सुन्नी मुसलमनो को सही मानते है ना शिया मुसलमनो को। जो भी इनके अक़ीदे के खिलाफ रहता है ये उन्हे काफिर कह कर उसे वजीबुल कत्ल मानते है और इनके माननेवाले उन्हे सरेआम कत्ल करते फिर रहे है। ये कभी अल-काएदा के नाम से, कभी अल-नुसरा के नाम से, कभी दाएश के नाम से, कभी ISIS के नाम से मुसलमनो को ही मार कर इस्लाम का नाम बदनाम करते है।

इनका अकीदा है के कोई भी वसीला इखतियार नहीं कर सकता और कोई भी किसी बुज़ुर्ग, हत्ता खुद रसुल्लाह (स्) की ज़ियारत पर नहीं जा सकता और इसी बीना पर इन आले स्उद ने मदीना मे मुकिम जन्नतुल बक़ी को मिस्मार कर दिया। इस जन्नतुल बक़ी मे रसुल्लाह (स्) की आल, अज़वाज और असहाब के मज़ारात है, जिनकी शिया और सुन्नी, दोनों मसलक के लोग ताज़ीम करते है। इन आले स्उद ने दुनिया के तमाम मुसलमनो के जज़बात का ख्याल ना करते हुए, मक्का और मदीना के तमाम इसलामी निशनियो को निस्तोनाबूद कर दिया। हुमारी


आज से 90 साल पहले तक मक्का और मदीना मे वो घर और गलिया हुआ करती थी जहा रसुल्लाह (स्) ने ज़िंदगी गुजारी और इस्लाम की तबलीग की लेकिन आज उन सब निशनियो की जगह होटल और स्उदी महल बने हुए है। आने वाली नस्ले हम से सवाल करेगी के इस्लाम की कोई निशानी बाकी भी है या नहीं।

आज कुछ लोग बाकी के सनिहे को शिया और सुन्नी मसले का रुख देते है और अवाम को एक दूसरे के खिलाफ भडकाते है। हमे ये समझना चाहिये के हम असली बात को पहचाने और हकीक़ी दुश्मन को पहचान्ने की कोशिश करे।

Wednesday, 6 August 2014

गाज़ा लड़ाई क्यों कर रहा है?



कुछ लोगो का, जिनमे अरब और मुसलमान भी शामिल है, का ये सोचना है कि गाज़ा पर हुए हमले के लिये "हमास" ज़िम्मेदार है। अगर हमास इसराईल पर रॉकेट से हमले करना छोड दे तो इसराईल भी गाज़ा पर अपने हमले बंद कर देगा।


इस सोच की सबसे बड़ी तकलीफ ये है की इन्हे लगता है ये मसला अभी कुछ रोज़ या महीनो पहले का है, जो कि वेस्ट बैंक मे तीन इसराईली लड़को के अगवा होने और उनकी हत्या के बाद शुरू हुआ। ये मसला पिछले महीन या पिछले साल शुरू नहीं हुआ और ना ही हमास ने पहले इसराईल पर रॉकेट हमले किए। ये मसला बहुत पहले शुरू हुआ है.. जब दूसरा विश्व युद्ध (अलमी जंग) खत्म हुआ और ब्रिटेन ने फिलिस्तीन की ज़मीन पर यहुदियों के लिये "यहुदी होमेलैंड" बनाने का एलान किया। और इसके बाद 1948 मे सियासी यहुदियों (Zionist) के गुंडो ने फिलिस्तीन की बस्तियों को लुटना और कतलेआम मचाना शुरू कर दिया। इस गुंडगर्दी मे "हग्नाह और इर्गुन" जैसे यहुदी कट्टरपंथी गिरोह शामिल थे।


इस लुटमार और कतलेआम के नतीजे मे मज़लूम फिलिस्तिनियों को पड़ोसी मुल्कों मे पनाह लेनी पडी जैसे लेबनॉन, जोर्डन और सिरिया। कुछ लोग फिलिस्तीन मे ही मौजूद शान्त इलाको मे जा कर बस गए जैसे गाज़ा और वेस्ट बैंक; जहाँ आज भी बड़ी तादाद मे शरनार्थी कैम्प्स मौजूद है; यहा तक के 70% गाज़ा की अवाम इन्ही बेघर शरणार्थी से भरा हुआ है, जो पहले कभी अपने वतन फिलिस्तीन मे रहते थे, जहा आज इसराईल मौजूद है। इसराईल के 15 मई, 1948 मे वुजूद मे आने के बाद भी, कई फिलिस्तिनी मज़लूमो का अपने गाओं और शहरों से पड़ोसी मुल्कों और शांत इलाकों मे पलायन बहुत दिनो तक जारी रहा। आज भी बेवतन फिलिस्तिनी अपने छिने हुए और उजडे हुए घरों की चबिया सम्भाले हुए उस वक्त का इंतज़ार कर रहे है के वे घर कब वापस लौटेगे।

फिलिस्तीन का बचा हुआ हिस्सा जो की सिर्फ 22% रह गया था जिसमे गाज़ा और वेस्ट बैंक बाकी था, उसपर भी इसराईल ने 1967 की जंग के बाद कब्ज़ा कर लिया जिसे इसराईल ने नाम दिया था "Preventive War". ये सभी शरणार्थी और बेवतन लोग अपने वतन की आज़ादी और वापसी के लिये लड रहे है। ये हक हर उस कौम को हसिल है जिसकी जगह नज़ायाज़ तरीके से छीन ली गई है। लेकिन अफसोस, मज़लूम फिलिस्तिनियों को ये हक भी नहीं दिया गया और पश्चिमी मीडिया ने इन्हे अतंकवादी और दहशतगर्द जैसे नामो से मशहुर कर दिया।

इन मज़लूम बेवतन फिलिस्तिनियों की सिर्फ एक ही मांग है कि उनकी सारी मातृभूमि उन्हे वापस लौटा दी जाए लेकिन उनकी कमज़ोरी और अमेरिका की इसराईल को भरपूर हिमायत के चलते फिलिस्तिनी जनता 22% ज़मीन पर ही राज़ी है; जो इसराईल ने 1967 की जंग मे कब्ज़ा कर ली थी। ये बात 1992 मे ऑस्लो रिकॉर्ड मे घोशित कर दी गई थी जिसके तहत इसराईल और फिलिस्तीन दोनों देश एक दूसरे के साथ रहने पर आमादा थे और 5 साल मे इसे पुरा होना था। लेकिन आज 22 साल के बाद भी ये एक सपना ही है।

मज़लूम फिलिस्तिनी अवाम जिनके पास कोई ताकत नहीं है, उन्हे इस आस पर बातचीत के दौरो से गुज़रा जा रहा है के जल्द ही इसराईल उन्हे उनका हक दे देगा। लेकिन इसकी दूसरी तराफ इसराईल फिलिस्तिनी ज़मीन पर अपने नए सेटलमेंट्स लगतार बना रहा है; जो खुद इसराईल भी मानता है कि फिलिस्तिनी ज़मीन है।

2006 मे फिलिस्तीन मे एक ज़बरदस्त घटना घटीजिसमे गाज़ा के चुनाओ मे हमास नामी गिरोह को बहुमत मिला। लेकिन इस चुनाव को इसराईल और पस्चिमी देशों ने नकार दिया जैसा के वो हमेशा करते आए है। इन लोगो को इसलामी ममालिक मे लोकतंत्र उस वक्त तक क़बुल नहीं है जब तक इनके पीठठू गद्दी पर नहीं बैठ जाते। हमास कि सरकार को कुछ ही महीनो मे गिरा दिया गया और सन 2007 से गज़ा का घेराओ कर के पहले से घिरी हुई ज़मीन को पुरी दुनिया से अलग कर दिया। ये घेराओ शादीद तर है, जिसमे 18 लाख लोग रोज़ पिस रहे है। ना बराबर से खाना पहुचता है ना पानी.. ना घर बनाने का सामान है ना दवा। गाज़ा आज दुनिया का सबसे बड़ा कैदखाना है जहा बुढे, औरते और बच्चे सिसक रहे है।

गाज़ा से गासीब इसराईल कि ओर जाने वाला हर रॉकेट एक एहतिजाज है जो कि इस गासीब, खुनी और नजयाज़ इसराइली हुकुमत को ललकारता है और याद दिलाता है कि ये ज़मीन फिलिस्तिनियों की है और रहेगी। फिलिस्तिनी कैम्प्स मे रहना पसंद करेगे लेकिन जिल्लत की ज़िंदगी कभी क़बुल नहीं करेगे।

गाज़ा का मसला हमास के रॉकेट्स या सुरंगे नहीं है, हकीक़ी मसला आज़ादी और इज़्ज़त का है। आज इस जंग का हकीक़ी हल ये है के पुरे मुल्क को एक नज़र से देख कर वहा के लोगो से रेफरेंडम के ज़रिये पूछा जाए के वे इसराईल चाहते है या फिलिस्तीन; और फिर आवाम के फैसले पर एक मुल्क बनया जाए जिसमे फिलिस्तिनी अपनी जगहो पर रहेगे और यहुदी भी, और जो भी बाहर से आए हुए लोग है वो अपने अपने मुल्क वापस जाएगे। जिस दिन ये हक फिलिस्तिनियों को मिल जाएगा, ये रॉकेट्स आना बंद हो जाएगे और गाज़ा के लोग भी आम लोगो की तराह सुकुन की ज़िंदगी बसर करने लगेगे।