कुछ दिनों पहले मेरे एक
दोस्त ने, जो की हिन्दुस्तानी है, सवाल किया, “ये ISIS क्या है? ये अपने आप को
इस्लामिक स्टेट क्यों पुकारते है? इस्लाम के नाम पर ये गिरोह इतनी वेहशतनाक हरकते
कैसे कर सकते है? हमने तो हिन्दुस्तान में मुसलमानों को इतना बुरा करते या सोचते
कभी नहीं देखा”.
सवाल सुनते ही मेरे ज़हन में भी तरह तरह की तस्वीरे और खयालात आने लगे और मैं सोचने लगा की मीडिया ने अपना काम कर दिया. हिन्दुस्तानी अवाम के नज़दीक इस्लाम को और मुसलमानों को एक वेहशी और ना-अक्ल मज़हब साबित कर दिया.
लेकिन आज सारे मुसलमानों के ज़हन में भी यही सवाल है कि:
- ये ISIS क्या बला है?
- 2014 के पहले कभी इसका नाम नहीं सुना था, ये अचानक कैसे इतने बड़े हो गए?
- ऐसा कैसे हो सकता है की दो देशो के बिच के एक बड़े हिस्से को ये गिरोह कंट्रोल कर रहा है और दुनिया तमाशा देख रही है?
- सारी दुनिया से हजारो नौजवान क्यों इस ग्रुप से जुड़ रहे है?
- इस्लाम का नाम ले कर ये गिरोह शैतान वाले काम क्यों कर रहा है?
- और बहोत से सवालात सभी के ज़हनो में उठना लाज़मी है
दुनिया में हो रही हलचल
ने पूरी इंसानियत को झंजोड़ के रख दिया है और इससे मुस्लमान भी अछूते नहीं है.
हिस्ट्री की किताब पढ़े तो पता चलता है के दुनियापरस्त मगरीबी ममालिक ने सिर्फ अपने
मुल्को को ही नहीं बल्कि सारी दुनिया को अपनी हवास का शिकार बनाया है; जिसके नतीजे
में दुनिया को दो बड़ी जंगो (वर्ल्ड वार) का सामना करना पड़ा जिससे करोडो लोगो की
जाने गई और बेतहाशा तबाही हुई.
दुसरे वर्ल्ड वार के
बाद जब हालात रास्ते पर वापस आ रहे थे, उसी वक़्त मिडिल ईस्ट में ब्रिटिश हुकूमत ने
“इजराइल” नाम के लाइलाज कैंसर को मुसलमानों के बिच छोड़ दिया, जिसके बाद से आज तक
मिडिल ईस्ट के बाशिंदे चैन की नींद नहीं सो पाए है.
इजराइल ने ना सिर्फ फिलिस्तीनियों पर ज़ुल्म किया, बल्की पुरे इलाके में रहने वाली अवाम पर अपना नेगेटिव असर डाला. साथ ही, निकम्मे अरब हुक्मरानों की हरकतों ने अवाम को और ज्यादा ना-उम्मीद कर दिया. अवाम की हालात ऐसी थी के जहाँ कही उम्मीद की हलकी सी किरन दिखती, उस तरफ दौड़ लगा देती. लेकिन अफ़सोस के कही लीडरशिप बिकी हुई होती, तो कही अवाम को बद्ज़न कर दिया जाता.
इजराइल की मजबूती और इस्तेक़ामत, हर आज़ाद दिल इंसान के सीने में खंजर जैसे चुभी हुई थी, जिसे बाहर निकालने का कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था.
इसी बिच, 1979 में मुल्के ईरान में एक मर्दे मुजाहिद उठता है जिसको दुनिया “इमाम खुमैनी” के नाम से जानती है और अमेरिका के बिठाए हुए “रज़ा शाह पहलवी” को ईरान से बाहर कर, एक इस्लामी हुकूमत की तशकील देता है. अपने पहले ही बयान में इमाम खुमैनी दुनिया के तमाम मज्लुमिन की हिमायत और ज़ालेमिन की मुखालिफत का एलान करते है; और खास तौर पर इजराइल फिलिस्तीन के मसले पर रौशनी डालते हुए मजलूम फिलिस्तीनियों के हक के लिए हर मुमकिन कोशिश करने के अपने पुख्ता इरादे के बारे में दुनिया को बताते है.
प्यासी उम्मत को एक सबील दिखाई देती है जिसके पीछे इजराइल के खिलाफ मुत्तहिद हो कर जमा हुआ जा सकता है. कुछ ही दिनों में सारी दुनिया में इस्लामी इन्केलाब की वाह वाही होने लगती है और खास तौर पर इस्लामी अवाम इमाम खोमीनी की कयादत को बगैर किसी मस्लाको मज़हब की क़ैद के कबुल करने के लिए आमादा नज़र आते है.
दुश्मन अमेरिका इस आमादगी को अच्छी तरह से भांप लेता है और उस वक़्त के इराकी सदर, सद्दाम हुसैन, को झूटे बहाने बना कर ईरान पर हमला करने पर राज़ी कर लेता है. 1980 में जब इराकी फौजे ईरान की सरहदों में दाखिल हो जाती है और ईरान की तरफ से दिफाई एक्दामात होते है; उस वक़्त यही दुश्मन अमेरिका अपने मीडिया के ज़रिये इस जंग को “ईरानी शियों की इराक़ी सुन्नियो के साथ जंग” से ताबीर करने में अपनी पूरी ताक़त झोक देता है.
आलमी सतह पर मीडिया प्रोपगंडे का असर दिखाई देने लगता है और उम्मत निजात की सबील, “इस्लामी इन्केलाब” से दूर होने लगती है. फिरकावारियत की ये चिंगारी धीरे धीरे पुरे इलाके को अपनी चपेट में ले लेती है और उसी के फ़ौरन बाद दुनिया में बहोत सी असीसी चीज़े सामने आती है जो की इससे पहले किसी इंसान ने नहीं सुनी.
इस्लामी इन्केलाबे ईरान को मीडिया चैनल्स एक “शिया इन्केलाब” से ताबीर करते है और इसे सुन्नियो का दुश्मन बताते है. ऐसा करना अमेरिका के लिए इसलिए भी ज़रूरी था, क्युकी अगर अवाम इमाम खोमीनी के पीछे चल पड़ती, तो इलाके में मौजूद इजराइल को मिटने से कोई नहीं रोक सकता था.
ये चीज़ इमाम खोमीनी के इस जुमले से साफ़ ज़ाहिर है जिसमे उन्होंने कहा था की “अगर दुनिया के सारे मुसलमान एक हो कर सिर्फ एक एक बाल्टी पानी भी इजराइल पर डाल दे तो इजराइल उस सैलाब में बह जाएगा”. लेकिन अफ़सोस के उम्मत दुश्मन की चाल का शिकार होती है और मुसलमानों के लिए बद से बदतर दिन सामने आते है.
इसी दौरान, 1980 में, अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत रूस कब्ज़ा करने की कोशिश करता है. रूस के दबदबे को हराने के लिए अमेरिका अपने बीके हुए साथियों का इस्तेमाल करता है, जिसमे उसे सऊदी अरब और पकिस्तान का पूरा पूरा साथ मिलता है. यह मुहीम अफ़ग़ानिस्तान में इस्लाम को रूस से बचने के नाम पर शुरू की जाती है, जिसमे सऊदी रियाल का ज़खीरा पकिस्तान की ज़मीन पर मुजाहिदीन की रिक्रूटमेंट और ट्रेनिंग के लिए सर्फ़ किया जाता है. इसके नतीजे में अफ़ग़ानिस्तान में एक कट्टरपंथी गिरोह वुजूद में आता है जिसका नाम “तालिबान” रखा जाता है.
तालिबान का पहला मकसद अमेरिकी मफाद में अफ़ग़ानिस्तान से रूस को बाहर करना था और दुसरे मकासिद में मुसलमानों को जिहाद के ज़रिये खिलाफत के निफाज़ के रास्ते को आशना करा कर सुन्नी मुसलमानों को ईरान में आए इस्लामी इन्केलाब से दूर करना भी था.
तालिबान अपने पहले मकसद में कामियाब होता है और रूस अफ़ग़ानिस्तान से बाहर चला जाता है. इसी के साथ वो लोग जो सुन्नी खिलाफत का ख्वाब देख रहे थे उन्हें एक राह मिल जाती है और तालिबान जैसे गिरोह जिनमे अल-काएदा और अल-शबाब शामिल है, अपना सर उठाने लगते है.
एक तरफ इल्म, इमान और तकवे के बल पर कमियाबी की छोटी को चूमती दिखाई देती जम्हुरी-ए-इस्लामी-ए- ईरान की हुकूमत, जो इंसानियत को अम्नों सुकून फराहम कर के एक इलाही हुकूमत की झलक दे रही थी और दूसरी तरफ ज़ुल्मो तशद्दुद में आलूद तालिबान और अल-काएदा जो इस्लाम की शक्ल बिगाड़ कर दुनिया के सामने रख रहे थे.
ऐसे में भोले और जज्बाती लोग फरेब में आ कर गलत राह इख्तियार करते है और सारी दुनिया में एक बोहरान उठ खड़ा होता है. जो आग दुश्मन अमेरिका के खिलाफ लगी थी और जिसका शिकार इजराइल को होना था, वो आपसी लड़ाई की शक्ल ले लेती है. उम्मते मुस्लिमा का इजराइल के खिलाफ का गुस्सा एक फिरकावाराना तर्ज़ पर मंज़रे आम पर आता है.
इसी के बिच, कुछ नाम निहाद शिया हज़रात जो लन्दन, कनाडा और अमेरिका में रहते है, अपनी गवर्नमेंट की फंडिंग के ज़रिये प्राइवेट टीवी चैनल्स, सोशल मीडिया और दुसरे तरीकों से खुलेआम सुन्नी हज़रात के तक़द्दुसात की तौहीन करना शुरू करते है और इसे अपना जायज़ हक बताते हुए सारी हदे पार कर देते है. इसे बहाना बना कर फिरकापरस्त तंजीमे अपनी रोटीयां सेकती है और एक ऐसी तहरीक का आग़ाज़ होता है जिसके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं होगा.
बात यही पर ख़त्म नहीं होती. अपने वुजूद को बचाने के लिए इजराइल हर कीमत चुकाने को तैयार होता है और वो इन फिरकापरस्त लोगो को अपने आप में उलझाने के लिए और ज्यादा प्लानिंग करता है. अफ़ग़ानिस्तान और इराक पर अमेरिकी हमले के बाद ये आग और भड़क उठती है और अल-काएदा नाम का ये गिरोह इराक में भी अपने पैर पसारने लगता है. यह सब इत्तेफाक नहीं, बल्की एक सोची समझी साज़िश के तहत होता है जिसका फ़ाएदा सिर्फ और सिर्फ इजराइल का मिडिल ईस्ट में दिफ़ा करना है.
इराक में अमेरिकी दाखिले के साथ ही उम्मते मुस्लिमा में एक अजीब किस्म की हलचल महसूस होती है जिसमे अमेरिकन मीडिया मिडिल ईस्ट में “शिया क्रेसेन्ट (शिया हिलाल) के तुलु होने” का कैंपेन चला कर सुन्नी अरब दुनिया में घबराहट फ़ैलाने के लिए इस्तेमाल करता है.
सद्दाम हुसैन की हुकूमत गिरने के बाद इराक में अमेरिका एक सूडो डेमोक्रेटिक स्ट्रक्चर (नकली जम्हूरियत का ढाचा) तैयार करता है जिसमे कुर्दिस्तान को ऑटोनोमी दी जाती है. इराकी सुन्नियो की नुमाइंदगी में वहां के सदर को चुना जाता है और प्राइम मिनिस्टर की अहम् पोस्ट शिया के लिए रिज़र्व रखी जाती है. इन सब के साथ, डिसिशन लेने के पॉवर प्राइम मिनिस्टर को दिए जाते है. इसके साथ ही नई इराक़ी हुकूमत को मगरीबी मीडिया शिया हुकूमत के नाम से मुखातिब करने लगता है; जिसके नतीजे में “शिया हिलाल” की ताबीर को सही साबित किया जाता है.
इन सब के चलते, सऊदी अरब अपना वकार कायम रखने के लिए अपने आप को सुन्नी अरबो का अलमबरदार होने का एलान करता है और इराक में अल-काएदा गिरोह को फंड्स और वेपन्स के ज़रिये सपोर्ट करता है. इसके नतीजे में इराक में लाखो बेगुनाह मुसलमानों की जाने जाती है और हालात बद से बदतर हो जाते है.
2011 में जब तुनिशिया से “अरब स्प्रिंग” नाम की एक हवा चलती है जिसमे अरब देशो की अवाम अपने हुक्मरानों के खिलाफ एकजुट हो कर सिस्टम बदलने का मुतालिबा करती है; तुनिशिया, मिस्र, यमन और बहरैन में एहतिजाज जोर पकड़ने लगते है. नतीजे में तुनिशिया, मिस्र और यमन की हुकूमते तब्दील हो जाती है.
इसी वक़्त सीरिया में भी कुछ लोग “सद्र बशार अल-असद” की हुकूमत के खिलाफ इह्तिजाज करते है. इस एहतिजाज को अमेरीका और उसके साथियों का भरपूर सपोर्ट मिलता है. यहाँ एक बात बताना ज़रूरी है की सीरिया हमेशा से ही इजराइल का शदीद मुखालिफ रहा है. 1967 की जंग में इजराइल ने सीरिया की गोलान पहाडियों पर कब्ज़ा कर लिया था जहा पर आज तक इसरायली कब्ज़ा बाक़ी है और सीरिया ने उसे वापस लेने के लिए इजराइल के सामने झुक कर किसी किस्म की सुलह नहीं की.
सीरिया को अपने इस कयाम का खामियाज़ा भुगतना पड़ा और वहां के बागियों को मगरीबी ममालिक का अच्छा खासा सपोर्ट मिलने लगा. वक़्त के साथ प्रोटेस्ट रेलियाँ एक घमासान सिविल वार में तब्दील होती गई, और हुकूमत और बागियों में ज़बरदस्त लढाई शुरू हो गई.
फिर से वेस्टर्न मीडिया ने अपना खेल खेला और इस लड़ाई को शिया-सुन्नी जंग का रुख दिया, जबकि हकीक़त में यह जंग अमेरिकी मफाद में सीरिया की ज़मीन पर लड़ी जा रही थी. असद एक अलवी मुस्लमान है जो शिया और सुन्नी से अलग एक छोटा सा फिरका है. ईरान सीरिया में पैदा हुए हालातो के सियासी हल की हिमायत करता है और किसी भी तरह के हथियारों की जंग और बाहरी देशो की मुदाखिलत की सख्त मुखालिफत करता है. और चूँकि असद की हुकूमत इजराइल के खिलाफ अपने स्टैंड पर आयाम है, ईरान इसे मुसलमानों के हक में जानते हुए वहां पर किसी भी तरह के मगरीबी मदद के तख्तापलट की हिमायत में नहीं है. क्युकी अगर मगरीबी ताक़तों के बलबूते पर तख्तापलट होता है तो कोई ऐसा आदमी / पार्टी हुकूमत में आएगी जो अमेरीका की पॉलिसियो को सपोर्ट करेगी और इजराइल को और ज्यादा अम्नियत फराहम हो जाएगी.
इन सब के चलते मिडिल ईस्ट में ज़मीनी वार के साथ साथ मीडिया वार तेज़ी से अपने पैर पसारने लगा, और अरब सुन्नियो को ये तस्लीम करा दिया गया की ये जंग अस्ल में शिया और सुन्नी के बिच की जंग है. इसके नतीजे में लोग बड़ी तादाद में सीरिया के बागियों के साथ जुड़ने लगे और वो मज़बूत होते गए.
सीरियन बागियों में अल-काएदा भी बड़ी तादाद में शामिल था और वहां पर उसके गिरोह जैसे जबात-अन-नुसरा,अहरार-अश-शाम और दुसरे नामो से हुकूमत के खिलाफ जंग लड़ रहे थे. अमेरिकी और सऊदी मदद के चलते बागियों ने एक बड़े इलाके पर कब्ज़ा जमा कर उस पर अपनी हुकूमत कायम करने का दावा किया और इसे “इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ और सीरया (ISIS)” का नाम दिया.
इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ ईरान के बाद ये पहला गिरोह था जिसने इस्लामिक स्टेट का नाम इस्तेमाल किया था. ये अस्ल में उन सुन्नी मुसलमानों को अपनी तरफ लाने का एक हरबा था जो इस्लामी हुकूमत / खिलाफत का ख्वाब देखते थे. देखते ही देखते सारी दुनिया से लोग सीरिया का रुख करते है और हजारो की तादाद में तुर्की की सरहद के ज़रिये ISIS से जुड़ने लगते है.
अब ये गिरोह सिर्फ सीरिया तक महदूद नहीं रहता, बल्कि इराक
में भी जो सुन्नी इलाके है वहां पर अपने पैर पसारने लगता है. अंदुरनी काम का आग़ाज़
होता है और सुन्नी क़बीलो को इस बात पर भड़काया जाता है की सद्दाम हुसैन की हुकूमत
जाने के बाद शिया हुकूमत के ज़रिये सुन्नियो पर बहोत ज़ुल्म किये जा रहे है. 2014 के
आग़ाज़ में नूरी अल मलिकी की हुकूमत के खिलाफ सुन्नियो के एहतेजाज सब को याद होगे.
इसी का फाएदा उठाते हुए ISIS ने अपना काम करना शुरू किया और इराकी सुन्नी क़बीलो को
और सद्दाम के ज़माने के फौजी अफसरों को इस बात पर राज़ी कर लिया की जब ISIS इराक़ पर
हमला करे तो अपनी जगह छोड़ कर भाग निकलना.
अप्रैल 2014 के इराकी प्राइम मिनिस्टर के इलेक्शन के नतीजो
का एलान होता है जिसमे मालीकी की पार्टी को फिर से एक बार सबसे ज्यादा वोट मिलते
है. नतीजो के ठीक दो दिन बाद ISIS इराक की सरहद पार कर के इराकी फौजी ठिकानो पर
हमला करते है. पहले से तय मनसूबे के मुताबिक फौजी अफसरान अपने ठिकाने छोड़ के भाग
खड़े होते है और क़बीलो के सरदार ISIS का साथ देते है. नतीजतन ISIS का इराक के
उत्तरी इलाकों में कब्ज़ा हो जाता है और बग़दाद के 40 की.मी. दूर मौजूद फल्लुजा तक
ISIS के कब्ज़े में आ जाता है.
अब ISIS का असली दुश्मन इराक और सीरिया के शिया होते है
क्युकी उनके ज़हनो में ये बात अच्छी तरह से डाल दी गई होती है की हुकूमत मिलने पर
इन्ही शियों ने इराक और सीरिया के सुन्नियो पर ज़ुल्म किया है. इजराइल की कोई बात
तक नहीं करता. गाजा और रामल्लाह के मजलूम फिलिस्तीनियों को जैसे पूरा जहाँ भूल
चूका होता है. ISIS अपने खलीफा का एलान करता है जिसका नाम अबुबकर अल-बगदादी होता
है और कुछ ही दिनों में ISIS अपना नाम बदल कर सिर्फ “इस्लामिक स्टेट (IS)” कर देता
है.
वही मगरीबी मीडिया जो हकीक़त को छुपाते हुए अपने बनाए हुए अरब
प्यादों को अरब देशो का असली हुक्मरान साबित कर रहा था, आज अमेरिकन फण्ड से बने
हुए एक आतंकवादी गिरोह को “इस्लामिक स्टेट” का नाम दे कर दुनिया में इस्लाम का नाम
ख़राब कर रहा है.
फिर्कावारियत कही भी हो, खतरे से खाली नहीं. वह शिअत जिसका
मरकज़ लन्दन में है या वो सुन्नियत जिसका पाएताख्त न्यूयॉर्क में है, हमेशा इस्लाम
को नुकसान पहुचाने का ही काम करेगी. असली दुश्मन को समझ कर हालात का जाएजा लेना
बहोत ज़रूरी अमल है और उसके बाद ही कोई भी एकदाम कारगर साबित हो सकता है. अपनी
मजलिसो और बयानों को फिर्कावारियत से पाक करना आज उम्मते मुस्लिमा का बेहद ज़रूरी
अमल है.
यहाँ हमें एक मुसलमान होने के नाते, समझदारी से काम लेते
हुए सबसे पहले ये देखने की ज़रूरत है कि फिर्क़वाराना ताने और झगड़ो से सिर्फ और
सिर्फ दुश्मन का फाएदा होता है और हमें किसी भी किस्म की तरक्की या फ़ज़ीलत हासिल
नहीं होती. इसी के साथ हमारे समाज के एक ज़रूरी चीज़ जिसे “भरोसा” कहा जाता है उसको
ठेस पहुचती है, जिससे कौमो में दूरियाँ पैदा होती है जिसका नतीजा आने वाले
मुस्तकबिल में बहोत खराब हो सकता है.
तहरीर: अब्बास हिंदी
तहरीर: अब्बास हिंदी
Excellent analysis... must share article!!
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