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Thursday, 22 October 2015

मुहर्रम क्या है?

हम देखते है की हर साल, मुहर्रम के मौके पर कुछ लोग “या हुसैन” के नारे लगते हुए, रोते हुए, अपने सीनो को पिटते हुए बहार निकलते है:

- क्या आपने कभी सोचा की यह लोग कौन है?
- यह लोग ऐसा क्यों कर रहे है?
- यह मुहर्रम क्या है?
- क्या मेरी ज़िन्दगी से इसका कुछ लेना देना है?

मुहर्रम इस्लामी साल का पहला महिना है जो चाँद के हिसाब से चलता है जिसे हिजरी साल भी कहा जाता है. सन 61 के मुहर्रम महीने में, जो आज से तक़रीबन 1400 साल पहले गुज़रा, नबी मुहम्मद (स) के नवासे, इमाम हुसैन (अ) को उनके 72 साथियों के साथ बेदर्दी से कर्बला, इराक़ के बियाबान में ज़ालिम यज़ीदी फ़ौज ने शहीद कर दिया था.

यजीद एक ज़ालिम बादशाह था जो समाज में मज़हब के नाम पर बुरी बाते लाना चाहता था जिससे की समाजी ज़िन्दगी की मजबूती टूट जाए और इंसानियत पारा पारा हो जाए. अपने ऐशो आराम और नाजायज़ ख्वाहिशात को पूरा करने के लिए पुरे समाज को अपनी बली चडाने के लिए तैयार यज़ीद के खिलाफ कोई खड़े होने की हिम्मत नहीं कर रहा था और ऐसे में इमाम हुसैन अपने 72 साथियों के साथ उठ खड़े हुए और यजीद को अपने नाजायज़ मकासिद में कामियाब नहीं होने दिया.

यजीदी फौजों ने इमाम हुसैन (अ) के छोटे से कारवान को जिसमे बूढ़े, औरते और बच्चे भी शामिल थे, कर्बला के बियाबान में घेर लिया और उन पर पानी बंद कर दिया. यजीद की बस एक ही शर्त थी; मज़हब के नाम पर उसकी नाजायज़ ख्वाहिशात के सामने अपना सर झुका दो नहीं तो शहादत के लिए तैयार हो जाओ.

इमाम हुसैन (अ) के साथियों ने इमाम का ऐसे वक़्त में मजबूती से साथ दिया और यजीदी फौजों के सामने डट कर खड़े हो गए, यहाँ तक के शहादत को गले लगा लिया. ज़ालिम यज़ीदी फ़ौज ने सिर्फ उम्र में बड़े लोगो को ही नहीं शहीद किया, बल्कि छे महीने के छोटे अली असगर को भी अपने बाप की गोद में तीर के वार से शहीद कर दिया. जंग के खात्मे के बाद यज़ीदी फ़ौज ने औरतो और बच्चो को कैदी बना कर यजीद के पास शाम भेज दिया, जहाँ उन्हें कैदखाने में सख्तियाँ झेलनी पड़ी और बहोत दिनों बाद वहां से आज़ादी मिली.

हर साल 10 मुहर्रम को इसी इमाम हुसैन (अ) के इंकेलाबी कारवान की याद में मुहर्रम बरपा किया जाता है, जिसे आशुरा भी कहते है.

इस रोज़ मुसलमान मस्जिदों और इमामबाड़ो में जमा हो कर इमाम हुसैन (अ) की मजलिस करते है, उनकी याद में जुलूस निकालते है, उनका अलम उठाते है (जैसा उन्होंने कर्बला के मैंदान में हक़ का झंडा उठाया था) और मातम करके अपने ग़म को ज़ाहिर करते है और ये बताते है की अगर हम कर्बला के मैदान में होते तो ज़रूर इमाम हुसैन (अ) का साथ देते और समाज को खराब होने से बचाने के लिए अपनी जान की कुर्बानी दे देते.

जो कारवान इमाम हुसैन (अ) ने 1400 साल पहले शुरू किया था वह आज भी जारी है. हर साल, आज़ादी के दिलदादा और हक पर चलने वाले अफराद अपनी कसमो को दोहराते है और अपने अन्दर की और समाज की हर बुराई के खिलाफ लड़ने की कसम खाते है.

जब कभी हम दुनिया में भ्रष्टाचार और ज़ुल्म देखे और अपने आप को अकेला महसूस करे तो कर्बला के पैग़ाम को याद करे जो हमे याद दिलाता है की अगर ज़ुल्म के खिलाफ मुकाबले में अकेले हो या तादाद में कम हो तो थक कर घर में ना बैठ जाओ. सच्चाई की राह में अगर क़दम आगे बढाओगे तो याद रखो की जीत हमेशा सच्चाई की ही होगी; फिर चाहे उस सच्चाई के लिए हमें अपनी जान क्यों ना देनी पड़े.

आज भी इतिहास गवाह है कि ज़ालिम यजीद का नाम मिट गया और नामे इमाम हुसैन (अ) आज तक जिंदा है और हमेशा ज़िंदा रहेगा. और जो पैग़ाम अपने क़याम से उन्होंने दिया था वो हमेशा हमेशा बाकी रहेगा. इमाम हुसैन (अ) और मुहर्रम का पैग़ाम सारी इंसानियत के लिए है और इसी रास्ते पर चलते हुए हम दुनिया को रहने के लिए एक अच्छी जगह बनाने में कामियाब हो सकते है.

www.thekarbala.net

Tuesday, 20 October 2015

मुहर्रम की फ़रियाद!

हर साल मुहर्रम दुनिया के सभी हिस्सों में बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है और मोमेनीन हजरात इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते है. बहुत से इलाकों में सिर्फ शिया लोग ही मुहर्रम नहीं मनाते बल्कि सुन्नी हजरात और कुछ इलाकों में तो हिन्दू और इसाई लोग भी इसमें हिस्सा लेते है. इसी सिम्त में एक शाएर ने दो मिसरे खूब कहे है:

“दरे हुसैन पर मिलते है हर ख्याल के लोग,
ये इत्तेहाद का मरकज़ है आदमी के लिए”

Muharram ki Fariyaad!

Har saal Muharram duniya ke sabhi hisso me badi dhoom dham se manaya jaata hai aur momenin hazraat isme badh-chad kar hissa lete hai. Bahot se ilaaqo me sirf Shia log hi Muharram nahi manate balki Sunni hazraat aur kuch ilaaqo me to Hindu aur Christen log bhi isme hissa lete hai. Isi simt me ek shair ne do misre khub kahe hai:

Dare Hussain par milte hai har khayal ke log,
Ye ittehaad ka markaz hai aadmi ke liye”

Tuesday, 6 October 2015

क्या ये तीसरे वर्ल्ड वार की शुरुवात है?




2011 में अरब स्प्रिंग आने के बाद से जैसे मिडिल ईस्ट का नक्षा ही तब्दील हो गया. अरब ममालिक में एक के बाद दुसरे मुल्क में हुकूमत बदलने लगी और वक़्त ऐसे दौड़ने लगा के उसे पहिये लग गए हो. एक सानीहे का जाएजा लेने के पहले दूसरा सनीहा होने लगा. एक फ़िक्र रखने वाले मुल्क साथ मिल कर सामने आने लगे और दुनिया जैसे दो गिरोह में बट गई. 

सबकी नज़रे जा कर एक मुल्क पर टिकी हुई है जिसका नाम “सीरिया” है; जहाँ पर सद्र असद का खानदान पिछले कुछ दशको से हुकूमत कर रहा है. सीरिया एक ऐसा मुल्क है जहाँ पर सभी मसलक-ओ-मज़हब के लोग मिल कर रहते है. 1960 के अंदरूनी लड़ाई के नतीजे में बशार अल असद के बाप, हाफिज अल असद ने हुकूमत अपने हाथो में ले ली थी; जिसके बाद से 2011तक सीरिया में कोई बड़ा मामला पेश नहीं आया. सीरिया इतना ताक़तवर हो गया था की उसकी फौजे कई सालो तक लेबनान के उपरी हिस्से को अपने कब्ज़े में लिए हुए थी और सीरिया इजराइल से सीधे टक्कर ले रहा था.

Kya ye Third World War ki shuruwaat hai?




2011 me Arab Spring aane ke baad se jaise Middle East ka naksha hi tabdeel ho gaya. Arab mamalik me ek ke baad dusre mulk me hukumat badalne lagi aur waqt aise daudne laga ke use pahiye lag gae ho. Ek sanihe ka jaeza lene ke pehle dusra saniha hone laga. Ek fikr rakhne wale mulk saath mil kar saamne aane lage aur duniya jaise do giroh me bat gai.

Sabki nazre ja kar ek mulk par tiki hui hai jiska naam “Syria” hai; jaha par President Assad ka khandan pichle kuch dashako se hukumat kar raha hai. Syria ek aisa mulk hai jaha par sabhi maslak-o-mazhab ke log mil kar rehte hai. 1960 ke andruni ladai ke natije me Bashar Al Assad ke baap, Hafiz Al Assad ne hukumat apne hatho me le li thi; jiske baad se 2011 tak Syria me koi bada mamla pesh nahi aaya. Syria itna taqatwar ho gaya tha ki uski fauje kai saalo tak Lebanon ke upari hisse ko apne kabze me liye hue thi aur Syria Israel se sidhe takkar le raha tha.