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Tuesday, 20 October 2015

मुहर्रम की फ़रियाद!

हर साल मुहर्रम दुनिया के सभी हिस्सों में बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है और मोमेनीन हजरात इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते है. बहुत से इलाकों में सिर्फ शिया लोग ही मुहर्रम नहीं मनाते बल्कि सुन्नी हजरात और कुछ इलाकों में तो हिन्दू और इसाई लोग भी इसमें हिस्सा लेते है. इसी सिम्त में एक शाएर ने दो मिसरे खूब कहे है:

“दरे हुसैन पर मिलते है हर ख्याल के लोग,
ये इत्तेहाद का मरकज़ है आदमी के लिए”
 
लेकिन बड़े अफ़सोस की बात है के ये अम्न, शांति और अद्ल का पैग़ाम देने वाला मुहर्रम तफरेके और तशद्दुद की बुनियाद बना दिया गया है. हर मिम्बर से एक दुसरे के खिलाफ आग उगली जाती है और इस आग उगलने को अपना बुनियादी हक बता कर हर दुसरे शख्स को जहन्नुमी और हराम की औलाद साबित किया जाता है.

इसी साल, तीसरी मुहर्रम की शब् में एक गली से गुज़र हुआ जहाँ पर देओबंदी हजरात का मुहर्रम के सिलसिले में बयान चल रहा था. मौलाना साहब बड़े दर्दे दिल से हर उस कौम को, जो उनकी बात को या उनकी फ़िक्र को नहीं मानती उसे गुमराह पुकार रहे थे और दुआ भी कर रहे थे की अल्लाह उन्हें सही राह बताए. इसमें उन्होंने सिर्फ शिया हजरात के खिलाफ ही ज़हर नहीं उगला बल्कि बरेलवी सुन्नी हजरात के खिलाफ भी खूब बयानबाजी करी. जब से मैं मुंबई आया हु, हर साल देखता हु की ये मौलाना साहब अपने बयानात को अपने सामेइन के लये नहीं बल्कि बाजू से गुजरने वाले शिया अफराद के लिए ज्यादा पड़ते है और बहुत खरी खोटी सुनाते है. क्या यही मुहर्रम का तकाज़ा है?

यह तो गुफ्तगू का एक पहलु था... इसका दूसरा पहलु भी है. उसी मोहल्ले में शिया हजरात का इमामबाडा है जहा एक जाकिर मजलिस पड़ते है. अपनी मजलिस के पहले हिस्से में वो अपनी खुद के अकाएद की वाह वाही करते और साथ में दुसरो के अकाएद की धज्जिया उड़ाते नज़र आए. इस सब के दौरान वो मौलाना साहब अपने जैसा अकीदा रखने वालो को जन्नती और बकी सब दुनिया वालो को जहन्नुमी; यहाँ तक हराम की औलाद तक कहते हैं.

क्या मुहर्रम इसी लिए है की अपने आप को दुसरो से बेहतर साबित किया जाए और दुसरो को जहन्नुमी ताबीर किया जाए?

एक और शिया मजलिस, जो की करीब की मस्जिद में होती है, जहा बहोत मशहूर और बुज़ुर्ग मजलिस पढ़ते है, उसमे उन्होंने कहा की दुसरी कौमो को तंज़ करने से मामला सुलझेगा नहीं बल्कि और बिगड़ेगा. लोगो को हक से आशना करना बहुत ज़रूरी चीज़ है, और इस राह में बहुत से मौजु ऐसे भी आते है जिससे लोगो का दिल दुःख सकता है. ऐसे मौके पर पार्लियामेंट्री तर्ज़े गुफ्तगू को इख्तियार करना हर कौम और जाकिर का फ़रीज़ा है.

बात बहोत बेहतरीन है लेकिन अगर हालात का जाएज़ा ले तो पता चलता है की सभी ज़ाकेरिन की रोटियाँ तफरेके के चूल्हे पर ही सेकी जा रही है. ज़ाकेरिन ऐसा कंटेंट इस लिए देते है की अवाम को ऐसी चीज़े पसंद है. अगर ताफरेका बाज़ी से हट कर मजलिस / बयान होता है तो लोग बहोत कम जमा होते है और ऐसे में जाकिर / मौलवी की आमदनी पर खासा असर पड़ता है.

मुहर्रम की हकीक़त पर नज़र डाले तो पता चलता है की पैग़ाम-ए-मुहर्रम सारी इंसानियत के लिए है. इस पैग़ाम को किसी खास कौम / मकतबे फ़िक्र से मुकम्मल तौर से जोड़ देना नाइंसाफी होगी. लेकिन ज़मीनी हकीक़त यह हैं की हर कौम अपने आप को मुहर्रम और इमाम हुसैन से मुकम्मल तौर से जोड़े रखना चाहती है और हर दूसरी कौम को उसका मुखालिफ बताती है.

जो भी मुहर्रम को किसी कौम / काबिले / मुल्क / नस्ल में बांधने की कोशिश करे, उसने हकीक़त में पैग़ाम-ए-कर्बला समझा ही नहीं है. इसके बरखिलाफ, वो शख्स इस पैग़ाम का मुखालिफ है. इस अम्न के पैग़ाम को दो सिक्को में बेचने वाले ज़ाकेरिन; भले वो किसी भी मकतबे फ़िक्र से हो; इस अज़ीम नेमत का कुफ्राने नेमत कर रहे है और याद रखे की इसकी उन सभी लोगो से ज़बरदस्त पूछ की जाएगी.

कर्बला मजलूम की सदा है; एक ऐसी सदा जो उस वक़्त के लोग ने अनसुनी कर दी थी; जबकि वो लोगो की भलाई के लिए थी. और आज भी कुछ मफाद परस्त लोगो की वजह से यह सदा मजलूम है. कर्बला आज हम से सवाल कर रही है... क्या हम उस पैग़ाम-ए-अम्न को सही में समझ पाए है?

इमाम हुसैन ने तो हर फ़िक्र और मज़हब के लोगो को अपने पैग़ाम की तरफ दावत दी थी. फिर वो इसाई जॉन हो या तीसरे खलीफा के मानने वाले ज़ोहैर, या खुद यजीदी फ़ौज के सिपहसालार हुर.. पैग़ामे हुसैन सभी के लिए एक खुले दरवाज़े की मानिंद है. फिर हम क्यों इस पैग़ाम के दरवाज़े को दुसरो पर बंद करने पर फख्र महसूस करते है?

ये सवाल उस वक़्त तक होता रहेगा जब तक हम सभी फिरकावारीयत वाली सोच से अपने आप को आज़ाद नहीं कर लेते और दुसरे लोगो को इस पैग़ाम के लिए खुले दिल से दवात नहीं दे देते जैसा की इमाम हुसैन ने किया था.

पैग़ाम-ए-हुसैन हमे भी अपनी तरफ दावत दे रहा है की “ऐ हुस्सैनियो! उठो और उस अम्न के पैग़ाम को सारी दुनिया के लिए आम करो जिसके लिए इमाम हुसैन ने अपने अहलो अयाल के साथ अपनी जान की कुर्बानी दे कर इसे हम तक पहुचाया है.”

क्या हम मुहर्रम की इस आह को सुन पा रहे है? क्या मुहर्रम हमारी वजह से हमें ग़मगीन नज़र नहीं आ रहा?
 
आइये मुहर्रम और पैग़ाम-ए-इमाम हुसैन का थोडा सा हक अदा करे. आइये दुनिया के लोगो के साथ मुहब्बत करे. आइये इस दुनिया को जीने के लिए एक बेहतरीन जगह बनाए.

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