अगर JNU के स्टूडेंट्स की तरफ से देखा जाए तो वे कहते है की भारत की सरकार चला रही बीजेपी यूनिवर्सिटी में अपनी मनमानी चाहती है और किसी भी तरह की आवाज़ कोउठने नहीं देना चाहती; यहाँ तक की सोचने की आज़ादी भी उन्हें खटक रही है.
अगर ABVP और बीजेपी वालो की बात सुने तो देशभक्ति की शुरुवात ज़ुबान से "जय जय कार" करने से होती है. और अगर कोई किसी भी तरह की बात इस "जय जय कार" करने में बाधा बने या ऐसा लगे की आगे चल कर कोई ऐसी सोच भी उनके विचारो में अद्व्हन बने, तो उसे देशद्रोह का नाम दे कर उसे कुचल दो.
मामला साफ़ है!! जहाँ विचारो पर भी पाबंदियां लगने की बात हो; ऐसे माहोल में ज़िन्दगी जीना बहुत मुश्किल होता है. सोचने के बहोत से कारण होते है जैसा अपने दुश्मन की तरफ से सोचना, किसी मुद्दे पर ऐसे एंगल से सोचना जिसका सच्चाई से कोई ताल्लुक ना हो या फिर बहोत कठोर बन कर सोचना. सोचने का परिणाम यह होता है की हर तरफ से चीज़ साफ़ हो जाती है और इंसानियत के सामने एक ऐसा नतीजा आता है जो किसी भी तरह से शक या धुन्ध्लाहत से साफ़ हो.
लेकिन जब इस सोचने पर ही रोक लगा दी जाए और कहा जाए की जो एक विचारधारा वाले लोग सोच रहे है उसी को आखिर मान कर अपनी ज़िन्दगी उस पर जीने लगो; यह एक तरह की न दिखने वाली जेल है जिसमे कोई भी आज़ाद इंसान जीना पसंद नहीं करेगा.
आज आम इंसान इस जेल में फसता चला जा रहा है और उसे बहार निकलने कारास्ता नज़र नहीं आ रहा. अगर किसी धर्म को मानने वालो से पूछे तो वो भी कह रहे है की मामला पेचीदा है, इससे दूर रहना ही अच्छा है.
अल्पसंख्यक में मुस्लमान हो या इसाई, जैन हो या पारसी; सभी इस विवाद से अपने आप को दूर रखते दिखाई दे रहे है. किसी ने यह तक कह दिया की धरम और सियासत को नहीं मिलाना चाहिए. जबकि अच्छे से देखा जाए तो बीजेपी और हिन्दुत्ववादी संघटन धर्म और सियासत को ही मिला रहे है.
लेकिन जब इस सोचने पर ही रोक लगा दी जाए और कहा जाए की जो एक विचारधारा वाले लोग सोच रहे है उसी को आखिर मान कर अपनी ज़िन्दगी उस पर जीने लगो; यह एक तरह की न दिखने वाली जेल है जिसमे कोई भी आज़ाद इंसान जीना पसंद नहीं करेगा.
आज आम इंसान इस जेल में फसता चला जा रहा है और उसे बहार निकलने कारास्ता नज़र नहीं आ रहा. अगर किसी धर्म को मानने वालो से पूछे तो वो भी कह रहे है की मामला पेचीदा है, इससे दूर रहना ही अच्छा है.
अल्पसंख्यक में मुस्लमान हो या इसाई, जैन हो या पारसी; सभी इस विवाद से अपने आप को दूर रखते दिखाई दे रहे है. किसी ने यह तक कह दिया की धरम और सियासत को नहीं मिलाना चाहिए. जबकि अच्छे से देखा जाए तो बीजेपी और हिन्दुत्ववादी संघटन धर्म और सियासत को ही मिला रहे है.
इन सब में मीडिया बहोत गन्दा खेल खेल रहा है. कॉर्पोरेट जगत से जुड़े न्यूज़ चैनल्स लोकसभा चुनाव में दिए गए अपने फंड्स को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे. फिर टाइम्स नाऊ हो या फिर ज़ी न्यूज़; रजत शर्मा हो या दीपक चौरसिया; सबकी जुबान दो दो फीट की हो कर देश की जगह बीजेपी और मोदी जी की "जय जय कार" कर रही है.
मीडिया का सबसे पहला काम है के वह हमेशा सरकार के खिलाफ काम करे. जो काम सरकार सही ढंग से पूरा नहीं कर रही उसे लोगो के सामने लाए और उन्हें उस मामले में जागरूक करे ताकि सरकार सही ढंग से काम कर सके. लेकिन यहाँ मामला उल्टा दिखाई दे रहा है. यह मीडिया चैनल्स, सरकार के गीत गा रहे है. यह एक ऐसा मैच है जहाँ पर अंपायर / रेफ़री निष्पक्ष नहीं बल्कि एक टीम की तरफ हो कर फैसला सुना रहा है.
सरकार, पुलिस और मीडिया को पटियाला कोर्ट की मार पीट दिखाई दी, ना ज़ी न्यूज़ का विडियो एडिट. रोहित वेमुला की पोलिटिकल ख़ुदकुशी दिखी न दाभोलकर, पंसरे और कलबुर्गी का टारगेट किल्लिंग.
आप से मुझे से सवाल है:
- क्या हमे यह सब दिखाई दिया?
- क्या हमने अपना कर्तव्य पूरा किया?
- या फिर हम भी मीडिया पर दिखाए जा रहे अफवाहों और हिन्दुत्ववादी विचारो से सहमत हो कर अपनी आँखे मूंदे हुए है?
- या अपने घरो में बैठे, व्हाट्स एप ग्रुप्स पर यह कहते फिर रहे है की मामला पेचीदा है, इसमें उलझ कर क्या फाएदा?
लेखक: अब्बास हिंदी
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